गुरुवार, जुलाई 04, 2013

नेहरू वाचनालय

               वो भी एक ज़माना हुआ करता था जब हमारे शहर का एकमात्र वाचनालय नेहरू वाचनालय पढ़ने के शौकीन लोगों से हमेशा गुलज़ार रहता था । मुझे बहुत अच्छे से ये याद है कि मैं भी साल के लगभग दस महीने परीक्षा के दो महीने छोड़कर वहाँ का सदस्य हुआ करता था । उस वक्त कई सारी पत्रिकायें, नई नई कॉमिक्स और उपन्यासों से सारी अलमारियाँ भरी रहती थी । न्यूज़ पेपर का रूम ही अलग था जहाँ एक बड़ी सी टेबल पर कई सारे अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, गुजराती न्यूज पेपर हर सुबह और शाम को सजे रहते थे और उसके गिर्द लगी कुर्सियां किस्मत वालों को ही खाली मिला करती थी । 
                 पता नहीं कैसे ये वृहद् वाचनालय धीरे धीरे सिकुड़ता चला गया... सिकुड़ता चला गया और आज करीब दस साल बाद मैं देखता हूँ, एक कमरे में एक छोटा सा टेबल, एक कुर्सी, एक बेंच, टेबल पर बिखरे हुये से कुछ अखबार, टूटी हुई अलमारियों के फूटे हुये काँच में से झाँकती पाठकों के इंतज़ार में टकटकी लगाये बैठी चंद बुज़ुर्ग और लाचार किताबें देखकर ही तरस आ जाये ।


                कुछ दिनों पहले अखबार में इस पुस्तकालय के उद्धार के संबंध में एक खबर पढ़कर बड़ी खुशी हुई थी मगर राजनीति के चलते ऐसा कब हो पायेगा, होगा भी या नहीं, इस बारे में स्पष्ट कुछ भी कहा नहीं जा सकता । इसीलिये आप सभी से अनुरोध है कि एक नागरिक या पाठक होने के नाते ही सही इस बेचारे से पुस्तकालय के जीर्णोद्धार के लिये मिलकर यथासंभव प्रयास करें । 
येहि विनय । 

 चंद खानों में सिमटती जर जर किताबें
बिखरी हुई बुज़ुर्ग और बेज़ार किताबें
गुज़रे वक्त को जो बयाँ करती थी कभी
खुद वक्त की मोहताज हुईं लाचार किताबें ।
‍--विश्वास शर्मा


बुधवार, जून 19, 2013

पौधारोपण-पौधारोपण


          बरसात के आने के साथ ही उन लोगों के चेहरों पर फिर से रौनक आ गयी जो कि पिछले कई सालों से पौधारोपण-पौधारोपण का खेल खेलते रहे हैं । अहा ! मज़ा आ गया अब तो फिर से समीतियाँ बनेंगी, पेपरबाज़ी होगी, हर शाम कहीं न कहीं किसी प्राकृतिक सौंदर्य में सराबोर स्थल पर गोटों का सिलसिला भी तो शुरू हो जाएगा, फण्ड मिलने लगेगें और रोज़ सुबह उठने के साथ ही अखबार में अपना फोटो देखने और पड़ोसी को जला जलाकर दिखाने का मज़ा ही कुछ और है ।
          नरसिंहगढ़ में ऐसे कितने ही सुनिश्चित से स्थान हैं जहाँ हर वर्ष पौधारोपण किया जाता रहा है और एक पौधा गाड़ के दस बीस लोगों के फोटू खिंचवाने की परंपरा सी रही है इस परंपरा के अंतर्गत लगाये गये बेचारे छोटे-छोटे मासूम से पौधे बस खबर बनवाने का मोहरा भर रहते रहे हैं । कैमरे की फ्लैश लाइट जलने के बाद कौन कहाँ गया किसे पता ? फिर दोबारा इसी वक्त इसी जगह पर अगले वर्ष मिलने  का उनका प्रोग्राम कभी फेल नहीं होता क्योंकि ये बात वो भी बखूबी जानते हैं कि ये पौधा कभी बड़ा नहीं होगा और होना भी नहीं चाहिये अगर हो गया तो फिर से दूसरी जगह कौन ढ़ूँढ़ता फिरेगा । एक अनुमान के अनुसार ऐसे सभी स्थान जहाँ वर्षों से पौधारोपण होता रहा है लगाये गये सभी पौधों के मात्र दस प्रतिशत पौधे भी यदि पेड़ बन गये होते तो वहाँ कदम रखने की भी जगह बाकी न रहती लेकिन ये सभी स्थान वर्षों से यथावत ही बने हुये हैं और शायद बनें रहेंगे । ऐसे सभी स्थानों को ढ़ूँढ़ ढ़ूँढ़ कर इन्हें "पौधारोपण रिजर्व एरिया" के नाम से चिन्हित ही कर दिया जाना चाहिये ।
          हालाँकि हमारे शहर में ऐसे जागरूक व्यक्तियों भी हैं जिन्होनें अपने दम पर पौधारोपण किया, उन्हें पाला और पेड़ बनने तक उनकी हर संभव मदद भी की, इसके साथ ही कई अन्य नगरवासियों के प्रेरणास्त्रोत भी बने । ऊपर वाली कहानी तो हर किसी शहर में एक सी है मगर मुझे गर्व है कि कुछ निःस्वार्थ भाव से इस प्रकार के कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेने वाले लोग भी मेरे शहर का हिस्सा हैं । इन्हें किसी तरह की पेपरबाज़ी या पब्लिसिटी से कोई मतलब नहीं ये तो बस शांत भाव से अपने कार्य में लगे हुये हैं ।